बरेली, जागरण संवाददाता। इसे भारत देश की माटी ही कहेंगे, जहां युग बदले गए, पात्र बदले, वक्त बदला मगर आदर्श नहीं बदले। सदियों पहले श्रवण कुमार अपने अंधे मां-पिता को तीर्थ दर्शन को लेकर चले थे। वो दौर देवताओं का था, मगर इस कलियुग में भी उनके जैसे सपूत हैं।
सीतापुर के मातापुर गांव के मौजीराम को देखें, पिता की मौत के बाद प्रण ले लिया कि उन्हें मोक्ष दिलाने के लिए हरिद्वार जाएंगे। मजदूरी करते हैं, इसलिए किराया-भाड़ा जुटा पाना मुश्किल भरा काम था, ऊपर से मां की इच्छा कि वह भी तीर्थ जाएं। बस, सोच लिया कि ऐसी नजीर पेश करेंगे कि पूरा समाज इससे सबक ले। कांवर तैयार की, एक ओर मां को बैठाया, दूसरे पलडे़ में पिता की अस्थियां और कुछ अनाज लेकर पैदल ही चल पड़े। चार महीने हो गये, रास्ते में तमाम दुश्र्वारियां आई मगर मौजीराम तो अपनी मौज में हैं। ऐसी मौज, जो हमारे आर्दशों में शामिल है। लगातार अपनी धुन में चले जा रहे हैं।
दोपहर करीब बारह बजे बरेली पहुंचे। सैटेलाइट बस स्टैंड से पहले ही लोगों में कौतूहल हो गया। कुछ ने राह चलते मौजीराम को देखकर तमाम सवाल खड़े किए तो कुछ उनके पास पहुंच गए। बात करने की कोशिश की मगर वह चुपचाप आगे बढ़ते चले गए। काफी कुरेदने के बाद बोले, बस मन में आया कि पिता को मोक्ष दिलाने के लिए कुछ ऐसा करूं जो किसी खुद को आत्मसंतुष्टि दे। लंबी बीमारी चली, मगर रुपये की कमी के चलते ढंग से इलाज नहीं करा सका। पांच महीने पहले उनकी मौत हो गई। दो बहनें हैं, जिनकी शादी हो चुकी है। इकलौता बेटा होने के कारण पिता की अस्थियां प्रवाहित करने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर ही थी। सोचा कि हरिद्वार जाकर अस्थियां प्रवाहित कर आऊंगा।
इस बीच मां कमला देवी ने साथ चलने की इच्छा जता दी। आर्थिक स्थिति आड़े आ रही थी, मगर मां को मना नहीं कर सकता था। इसलिए कांवर में उन्हें साथ लेकर पैदल ही चल दिया। अब चाहें कितना ही वक्त क्यों न लग जाए, हरिद्वार पहुंचकर ही दम लूंगा। मौजीराम ने रात का बसेरा अपने शहर में करने का मन बना लिया। सुबह तड़के वह दोबारा अपनी यात्रा पर निकल जाएंगे।
साभार:दैनिक जागरण
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